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Sunday, September 26, 2010

मैं परिणिता हूं....


कहानी

सोमवार की ओम् स्वर से गूंजती, वह सुबह। जो हमेशा की तरह पवित्रिक और ओजस्वपूर्ण वातावरण से पूरे हरिद्वार को महका रही थी पर कहीं न कहीं उस रोज किसी के आने की कशिश ने अंबिका के दिल में उस वातावरण को और सुंगधित कर दिया था जितनी महक तो शायद असंख्य फूलों और अगरबत्तियों के मिलन पर भी न हो। उस दिन पूरे रोज अंबिका ने महेश के इंतजार से खुद के संवारना और निखारना ही अपना उद्देश्य समझा था जैसा वह उसे देखना चाहता था। छोटी दादी और कानपुर वाली मौसी की सेवा करते-करते भी वह इतना न थकी होगी। जितना उस रोज महेश के लिए पकवान बनाते-बनाते उसके हाथ थक गए थे..............read morehttp://bit.ly/bYvC1T

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